मेरे बचपन का गांव बरूई : क्या भुलूं, क्या याद करूं

 

*देखते – देखते कुछ ही दशक में हमारे गाँव कितना बदल गए हैं, संयुक्त परिवार टूट गए, सुकून खो गया, एक तस्वीर पेश कर रहे हैं लखीमपुर खीरी जिले से स्वतंत्र पत्रकार प्रांशु वर्मा।*

👉🏻 *मेरा बचपन गांव में बीता बाबा और दादी के साथ रहता था मेरा अधिकांश समय बाबा और दादी, जिन्हें मैं आजी कहता था के साथ ही बिता था दादी के पास ही मैं सोता था. लिहाजा उनसे जुड़ी अनेक स्मृतियां अब भी याद आ रही हैं तब गांव में बिजली नहीं थी मिट्टी का घर था. संयुक्त परिवार था सब लोग एक साथ रहते थे बैल, गाय-भैंस और एक-दो कुत्ते भी रहते थे जानवर भी परिवार के हिस्सा थे खेत-खलिहान और बागीचे से जुड़ी अधिकांश चीजें अब भी याद आ रही हैं।*

*दोपहर बगीचे में*

_*मुझे याद है कि गर्मी के मौसम में जामुन व आम खाकर ही दोपहर का समय बीत जाता था बागीचे में दोपहर में खूब खेलते थे ओल्हा-पाती खेलते थे कभी-कभी गांव के तालाब में भी स्नान करते थे तैरना मैंने तालाब में ही सीखा था भैंस की पीठ पर बैठकर तालाब में स्नान खूब किए हैं उसकी पूंछ के सहारे ही धीरे-धीरे पानी में तैरना मैंने सीख लिया था कुआं भी था, जिसे अब पाट दिया गया है।*_

हालांकि मेरे गांव में गेहूं की खेती की प्रमुख खेती होती थी जौ, चना, मटर, सरसों, अरहर, ईख (गन्ना)और धान की खूब खेती होती हैं तराई क्षेत्र में जो खेत था उसमें धान होता था धान से पहले सावां, कोदो आदि की फसल तैयार हो जाती थी भदईं की खेती होती थी उसका भात बहुत मीठा व स्वादिष्ट होता था जो मेरे दादा जी को बहुत पसंद था लेकिन इन को देखें अब जमाना हो गया अब हालांकि उसकी खेती नहीं होती है,गर्मी में तालाब और बारिश के दिनों में मछलियां भी खूब मिलती थीं।

👉🏻 _*दूध – दही का कभी भंडार रहता था गांव*_

*देसी चीनी, गुड़ आदि घर पर ही तैयार किया जाता था जो आज भी बरूई ग्राम में तैयार की जाती है,गाय-भैंस थी, इसलिए दूध भी खूब होता था दूध, दही और घी बेचने की प्रथा नहीं थी दूध में पानी या घी में डालडा मिलाया जाता है, इसकी लोगों को जानकारी ही नहीं थी जब मैं गांव के एक निजी स्कूल में पढ़ता था, तब मेरे लिए नई किताब खरीदी गई थी, इसकी याद नहीं आ रही है अक्सर किसी रिश्तेदारी या घर में ही अगली कक्षा में पढ़ने वाले व्यक्ति की किताब से पढ़ाई हो जाती थी फिर मैं भी अपनी किताब अपने पीछे वाले किसी छात्र को दे देता था,इस तरह आपस में किताबों का आदान-प्रदान करके कक्षा-5 तक की पढ़ाई पूरी हो गई कक्षा-6 में भी यही स्थिति थी।*

👉🏻 *डिबरी या लालटेन की रोशनी*

👉🏻 *शाम को अंधेरा होते ही खेलने का काम खत्म हो जाता था तब रात में हम लोग लकड़ी की चटाकी पहनते थे बाबा के पास रेक्सीन की चप्पल थी गांव में बिजली मेरे समय आ गई थी पर मेरे यहां बिजली का कनेक्शन नहीं था, लिहाजा अंधेरा होते ही डिबरी या लालटेन जला दी जाती थी और उसी की रोशनी में बच्चे हम सब पढ़ते थे अभाव था लेकिन मन में इसका आभास ही नहीं था कि गरीबी है बचपन मज़े में बीतता रहा इसी तरह पढ़ाई व खेलने की प्रक्रिया चलती रही सुबह-शाम जब भैंस दूही जाती थी तो मैं गिलास लेकर चाचा जी के पास चला जाता था और एक गिलास दूध वह दे देते थे जो हल्का गर्म रहता था दादी अम्मा का कहना था कि भैंस के थान का गर्म दूध सेहत के लिए अच्छा होता है मेरे वो खुद भैंस व गाय को दूहते थे।*

👉🏻 *गर्मी की छुट्टियाँ*

👉🏻 *जब वह खेत पर जाते थे तो मैं भी उनके साथ जाता था,जब मैं बाहर किसी रिश्तेदारी में चला जाता था गर्मी की छुट्टीयों में अक्सर मैं नानी, नानी के यहां गांव चला जाता था वहां कभी-कभी 15-20 दिन या एक महीने तक रहता था।*

*बैलगाड़ी युग में ट्रेन तक का सफर*

👉🏻 *इसी तरह बचपन बीतता रहा और मैं कब बड़ा हो गया, कुछ पता ही नहीं चला अब जब पीछे मुड़कर उन दिनों की याद करता हूं तो सब कु़छ एक सपने की तरह लगता है कहां था और अब कहां आ गया हूं तब आने-जाने के लिए अक्सर बैलगाड़ी का प्रयोग किया जाता था बैलगाड़ी से ही लोग रिश्तेदार के यहां भी आते जाते थे रेलवे स्टेशन मेरे गांव से 8 कोस दूर था यानी लगभग 24/25 किलोमीटर दूर था पहली बार जब मैंने ट्रेन देखी तो मुझे बहुत आश्चर्य हुआ था छुक-छुक करती, सीटी बजाती ट्रेन रेलवे स्टेशन पर आती थी इंजन से खूब धुआं निकलता था स्टेशन पर ट्रेन के रुकते ही उतरने और चढ़ने वाले लोगों की आपाधापी बढ़ जाती थी एक दूसरे को धकियाते हुए लोग ट्रेन में चढ़ते-उतरते थे अक्सर मुझे लगता था कि भीड़ के कारण ट्रेन छूट जाएगी लेकिन बचपन के दिनों में ऐसा कभी हुआ नहीं।*
प्रांशु वर्मा लेखक
प्रांशु वर्मा अपराध संवाददाता/लेखक 

👉🏻 *कम्पोस्ट खाद सपना*

👉🏻 *बैलों ने अपनी उपयोगिता खो दी है ट्रैक्टर से खेतों की जुताई होती है गोबर की कम्पोस्ट खाद भी सपना हो गया है अब रासायनिक खाद बाजार से खरीद कर आती है. बीज भी पहले खाद-बीज में किसान आत्मनिर्भर थे, अब बहुराष्ट्रीय कंपनिया सहारा हैं पीने का पानी भी गांव में बिक रहा है कहते हैं कि धरती के पेट का पानी जहरीला हो गया है. बीमारियां भी बढ़ गई हैं गांव में कोई ऐसा परिवार नहीं होगा, जिसमें एक-दो लोग बीमार न हों अपनापन खत्म हो गया है शादी-विवाह में जो सामूहिकता नज़र आती थी, उसका अभाव है लगता है लोग एक नकली जिंदगी जी रहे हैं जो दिख रहा है, वह सच नहीं है और जो सच है, उस पर एक पर्दा डालकर हम विकास का झंडा लहरा रहे हैं।*

👉🏻 *मुझे लगता है कि “विकास” की जिस अंधी गुफ़ा में इंसान घुस गया है, उसमें सिर्फ जाने का रास्ता है, निकलने का नहीं गुफ़ा में आगे घना अंधेरा है, जिससे बेख़बर होकर हम छलांग लगाते हुए आगे बढ़ रहे हैं अग्निपथ पर “वीर” तुम बढ़े चलो..!*

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